Thursday, June 26, 2014

रत्न क्यों तथा कब पहनना चाहिए - By Astrologer Lokesh Agarwal


Exclusive Article on an Importance of GemStone written by an illustrious Astrologer Mr. Lokesh Agarwal. Readers can contact him directly on details given in the end of Article. He gives your prediction for free.

विज्ञान और हम सब यह मानते हैं की सृष्टि तथा मानव शरीर पंच तत्वों के मिश्रण से बना है- अग्नि, पृथ्वी, वायु, आकाश एवं जल। विधिवत सृष्टि संचालन तथा मानव शरीर संचालन के लिए इन तत्वों का संतुलन परम आवश्यक है। इन तत्वों के संतुलित रहने पर जिस प्रकार सृष्टि प्रसन्न रहती है उसी प्रकार, मनुष्य प्रसन्न तथा स्वस्थ रहता है। इन्हीं तत्वों के असंतुलित होने पर जिस प्रकार ज्वार-भाटा और अन्य प्राकृतिक आपदाएं आती हैं उसी प्रकार मनुष्य रोगग्रस्त, चिड़चिड़ा, दुखों से पीड़ित एवं कांतिहीन हो जाता है।किसी भी एक तत्त्व की न्यूनता तथा अधिकता दोनों ही ख़राब है। और इन तत्वों को संतुलित करने का आधार है ऊर्जा, प्रकाश और रंग। रत्न भी इसी सिद्धांत पर काम करता है।

रत्न करता क्या है

रत्न खुद किसी visible प्रकाश अथवा ऊर्जा का श्रोत नहीं होता अपितु अपनी संरचना, बनावट, अपने रंग, स्वभाव के अनुसार विशेष प्रकार की ऊर्जा/कंपनशक्ति/चुम्बकीय शक्ति को खींचता है और और उसको अवशोषित (Absorb), परावर्तित (Reflect) अथवा प्रसारित (Transmit) करता है। 



रत्न की चमक इसकी सतह से परावर्तित प्रकाश की मात्रा (Quantity) और गुणवत्ता (Quality) के कारण होती है। रत्न का रंग इस बात पर निर्भर करता है की उनसे किस wavelength का प्रकाश अवशोषित तथा परावर्तित किया है। विज्ञानं इसको चयनात्मक अवशोषण (Selective Absorption) कहता है।

रत्न अगर किसी ऐसी चीज़ से स्पर्श करे जो उर्जा का चालाक हो तो उर्जा/कंपनशक्ति/चुम्बकीय शक्ति/प्रकाश प्रसारित कर देता है। यही कारण है की ज्योतिषी कहते हैं की रत्न ऊँगली/शरीर से स्पर्श होना चाहिए।  



वैसे तो इस ब्रह्माण्ड की प्रत्येक वस्तु ऊर्जा को अवशोषित/परावर्तित करता है। परन्तु रत्न जिस विशेष प्रकार की ऊर्जा को खींचता है वो है ग्रहों की ऊर्जा, सूर्य के प्रकाश में निहित ग्रहों की विशेष रश्मियाँ, ग्रह की चुम्बकीय शक्ति, ग्रहों की विशेष कम्पन शक्ति।

अब आप ये तो समझ गए की रत्न ग्रह से सम्बंधित ऊर्जा को बड़ा देता है परन्तु खुद रत्न में इतना दिमाग नहीं है की वो ऊर्जा आपको सकारात्मक प्रभाव देगी या नकारात्मक। यह आपको और आपके ज्योतिषी को पता लगाना होगा। अगर वो ग्रह आपकी कुंडली का अकारक/अनिष्ट ग्रह है तो नकारात्मक ऊर्जा बढ़ जायेगी और आपको विपरीत परिणाम ही मिलेंगे। अथवा अगर आपके शरीर में पहले से ही अग्नितत्व की अधिकता के कारण कोई रोग है और आपने अग्नितत्व का ही रत्न पहन लिया तो रोग और ज्यादा बढ़ सकता है।

किस ग्रह का रत्न आप पहन सकते हैं

सामान्यत: लग्न कुंडली के अनुसार योगकारक ग्रह (जो ग्रह केंद्र तथा त्रिकोण दोनों का स्वामी हो). कारक ग्रहों के (1, 5, 9 भाव स्वामी) रत्न पहने जा सकते हैं। परन्तु यह बहुत सामान्य नीयम है और इसका यह मतलब नहीं की अगर जरूरत न हो फिर भी योगकारक और कारक ग्रह का रत्न पहनना चाहिए।

रत्न कब और क्यों पहनना चाहिए

एक सच्चा ज्योतिषी रत्न पहनने की सलाह देता है अगर:
  1. लग्न कुंडली के किसी कारक ग्रह का बल बहुत कम है। किसी भी ग्रह का बल ६ तरीके का होता है स्थान बल, दिग्बल, काल बल, चेष्टा बल, नैसर्गिक बल, द्रिक बल जिसको षड्बल कहते हैं। अगर षड्बल में ग्रह कमजोर है और न्यूनतम आवश्यकता से कम बल प्राप्त है तो यह तो निश्चित है की उसको बल देने की जरूरत है।
  2. परन्तु षड्बल के साथ साथ यह भी देखना जरूरी है की ग्रह किस भाव में किस अन्य ग्रह के साथ बैठकर कैसा फल दे रहा है। मान लीजिये आपका कारक ग्रह मंगल अष्टम में बैठकर किसी अनिष्ट की सम्भावना बना रहा है और षड्बल में कमजोर है तो अगर आपने मंगल को और मजबूत कर दिया तो अनिष्ट होना निश्चित ही मानिए।
  3. ग्रह अपनी महादशा/अन्तर्दशा में ज्यादा प्रभाव डालता है अतः अगर वो कारक ग्रह है तथा कमजोर है तो उसका रत्न पहनें। ग्रह गोचर के अनुसार भी रत्न पहना जा सकता है।

किस ग्रह का रत्न आपको नहीं पहनना चाहिए

  1. सामान्यतः 3, 6, 8, 12 भाव के स्वामी ग्रहों के रत्न नहीं पहनने चाहिए जब तक की वो खुद लग्नेश/भाग्येश न हो।
  2. अष्टमेश अगर लग्नेश न हो तो उसका रत्न कभी भी न पहनें (अगर किसी विशेष परिस्तिथि में जरूरत पड़े तो यह जांच लें की अष्टम भाव में उसकी मूल त्रिकोण राशि न पड़े)। और भी अन्य तरीके हैं ग्रहों की सकारात्मक उर्जा को बढ़ाने की।
  3. ऐसे ग्रह का रत्न न पहनें जो लग्नेश का शत्रु हो।
  4. बाधक, मारक, केन्द्राधिपत्य दोष से दूषित, मारक स्थान में गए ग्रह का रत्न पहनने से बचें।
  5. अगर ऐसे ग्रह का रत्न पहनने की जरूरत पड़े जो 6, 8, 12 भाव में बैठा है तो अच्छा रहेगा साथ में उसी ग्रह का यंत्र जोड़ दें और गले में धारण करें।

रत्न पहनने का तरीका

अगर यह सुनिश्चित कर लिया है की आपको रत्न पहनना है तो वह रत्न किस उंगली में, किस धातु में, किस दिन, किस समय, किस ग्रह की होरा में, किस मंत्रोचारण के साथ पहनना है यह भी ज्योतिषी से जरूर पता कर लें। रत्न को पहनने से पहले इष्ट देव, ग्रह से सम्बंधित देवता का पूजन अनिवार्य है। मैं इस बारे में अलग से ब्लॉग पोस्ट लिखूंगा।

रत्नों के बारे में भ्रांतियां  

  1. अगर कोई भी मांगलिक हो तो मूंगा पहन ले
  2. अगर गुस्सा आता है तो मोती पहन लो
  3. अगर किसी की शादी नहीं हो रही तो पुखराज/ओपल/जरकिन पहन ले
  4. अगर किसी के संतान नहीं तो उसकी पत्नी को पुखराज पहना दो
  5. पन्ना धारण करने से परीक्षा में सफलता मिल जायेगी।
  6. गुरु पुत्र, धन कारक ग्रह है अतः पुखराज कोई भी पहन सकता है
  7. लग्न कुंडली में कोई भी ग्रह नीच का है तो उसका रत्न पहन लो
  8. अगर राहु की महादशा चल रही है तो गोमेद पहन लो
  9. जिस भी ग्रह की महादशा चल रही है उसका रत्न जरूर पहनना चाहिए
  10. अगर ग्रह अस्त है तो उसका रत्न पहन लो चाहे षड्बल में उसको सर्वोच्च स्थान ही क्यों न प्राप्त हो।
  11. रत्न ग्रह की शान्ति करता है।


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- Lokesh Agrawal (lokesh.agrawal@gmail.com)

Thursday, June 12, 2014

परमात्मा ने जो हाथ दिया है वह बहुत हीं अद्भुत है l



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परमात्मा ने जो हाथ दिया है वह बहुत हीं अद्भुत है l 
हाथों की पाँचों उँगलियों को अगर हम दिव्य औषधालय (divine pharmacy) कहें तो अतिश्योक्ति नहीं होगी l 
पृथ्वी , जल , वायु , अग्नि , आकाश इन पाँचों तत्वों के स्विच हमारी उँगलियों में हैं l 
इन्हीं पाँचों तत्वों से पूरी श्रृष्टि बनी हुई है तथा हमारा शरीर भी l
इन पाँचों तत्वों का संतुलन हमारे शरीर में परम आवश्यक है lये पाँचों तत्व अगर शरीर में संतुलित रहें तो फिर शरीर बीमार नहीं होगा l 
अंगूठा अग्नि तत्व है अर्थात मंगल से जुड़ा हुआ , अनामिका पृथ्वी तत्व अर्थात सूर्य का प्रतीक है l
अंगूठा और अनामिका हर समय तेजस्वी विद्युत प्रवाह करते हैं l
पूजा-अर्चना तथा शुभ कार्य में हम अनामिका का हीं प्रयोग करते हैं यथा तिलक लगते समय l
अनामिका (ring finger ) तथा अंगुष्ठ (thumb) के शीर्ष को मिलाने से "पृथ्वी मुद्रा" बनती है (बाकी तीन उँगलियाँ सीधी रखनी हैं)
यह अत्यंत प्रभावशाली मुद्रा है l आंतरिक सूक्ष्म तत्वों में सार्थक प्रवाह लाती है , शरीर में स्फूर्ति , कान्ति एवं तेजस्व बढ़ता है l
यह सौन्दर्यवर्धक मुद्रा है l 45 मिनट इस मुद्रा को करने से जीवन शक्ति (Vital force) का विस्तार होता है l यह मुद्रा आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त करती है l

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" बंगला खूब बना महाराज जिसमें नारायण बोले ।
इस बंगले में नौ दरवाजे, बीच पवन का खंभा ।
आवत-जावत कोइ ना देखा, सबसे बड़ा अचंभा ॥ "

यानि की आत्मा l

ईश्वर का सूक्ष्म रूप है आत्मा l सबकी आत्मा अलग है l
आपके अन्दर जो आत्मा है वो आपके भाई या बहन से अलग है l
उनकी आत्मा अलग जगह से आई है l आपकी अलग जगह से l
हर आदमी के बहुत से जन्म होते हैं और पिछले जन्म में आपने जो कर्म किये वो संस्कार बन कर आपके अगले जन्म तक भी साथ रहते हैं।

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हिंदू धर्म में भगवान श्री गणेश का अद्वितीय महत्व है । पूजा-पाठ हो या विधि-विधान, हर मांगलिक, वैदिक कार्यों को प्रारंभ करते समय सर्वप्रथम भगवान गणपति का सुमरन करते हैं ।
यह बुद्धि के अधिदेवता विघ्ननाशक हैं। गणेश शब्द का अर्थ है गणों का स्वामी। हमारे शरीर में पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्मेन्द्रियां तथा चार अंतःकरण हैं तथा इनके पीछे जो शक्तियां हैं उन्हीं को चौदह देवता कहते हैं ।
देवताओं के मूल प्रेरक यही हैं । शास्त्रों में भी कहा गया है कि गणपति सब देवताओं में अग्रणी हैं । उनके अलग-अलग नाम व अलग-अलग स्वरूप हैं, लेकिन वास्तु में गणेशजी का बहुत महत्व है । गणेशजी अपने आपमें संपूर्ण वास्तु हैं ।
उनके जप का मंत्र ॐ गं गणपतये नम: है ।
 

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आत्मा चार स्तरों में स्वयं के होने का अनुभव करती है -
(1) जाग्रत, (2) स्वप्न, (3) सुषुप्ति और (4) तुरीय अवस्था ।
जन्म एक जाग्रति है और जीवन एक स्वप्न तथा मृत्यु एक गहरी सुषुप्ति अवस्था में चले जाना है, लेकिन जिन लोगों ने जीवन में नियमित 'ध्यान' किया है उन्हें मृत्यु मार नहीं सकती ।
ध्यान की एक विशेष दशा में व्यक्ति 'तुरीय अवस्था' में चला जाता है ।
तुरीय अवस्था को हम समझने की दृष्टि से पूर्ण जागरण की अवस्था कह सकते हैं, लेकिन यह उससे कहीं अधिक बड़ी बात है ।
उक्त चारों स्तरों के उपस्तर भी होते हैं जैसे कोई व्यक्ति जागा हुआ होकर भी सोया-सोया-सा दिखाई देता है ।
आँखें खुली है किंतु कई लोग बेहोशी में जीते रहते हैं ।
जीवन कब गुजर गया उन्हें पता ही नहीं चलता तब जन्म और मृत्यु का क्या भान रखेंगे ।
 

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इस संसार का सृजन, पालन और संहार शिव ही करते हैं ।
शिव की महिमा अपार है । पूरा ब्रह्मांड शिव में समाया है ।
भगवान शिव को प्रसन्न करना सब देवों में आसान है ।
यह तो सिर्फ जलधारा और पुष्प से भी प्रसन्न हो जाते हैं l
शिव की पूजा भस्म से करना भी श्रेष्ठ माना गया है l
शिव की भक्ति करने वाला मनुष्य जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाता है।
शरीर के बाहरी हिस्से को कितना भी सजा लो, लेकिन यह एक दिन चिता की अग्नि में जलकर भस्म हो जाएगा ।
अर्थी के उठने से पहले ही जीवन के अर्थ को समझ लेने से मोक्ष के द्वार खुल जाते हैं ।
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ईश्वर की कृपा बहुत शक्तिशाली होती है l
ईश्वर की कृपा द्वारा प्रारब्ध से भी पार पाया जा सकता है l
ईश्वर की कृपा भी तभी मिलती है जब सच्चा समर्पण होता है और मनुष्य पुरुषार्थ करता है l पुरुषार्थ तभी संभव है जब व्यक्ति का मन शुद्ध हो l व्यक्ति का मन तब शुद्ध होता है जब वह दया और करुणा से युक्त कार्य करता है l यदि मनुष्य पर ईश्वर का अनुग्रह हो तो प्रकृति के नीयम भी निष्क्रिय हो जाते हैं l हमारे सामने मार्कन्डेय ऋषि का उदहारण है, जिन्होंने अपने पुरुषार्थ और ईश्वर के प्रति सच्ची श्रद्धा और समर्पण से मृत्यु पर विजय पायी थी l प्रारब्धानुसार उनकी आयु अल्प थी, लेकिन जब उनपर परमपिता परमेश्वर का अनुग्रह हुआ तब यमराज की एक ना चली l
यह उदहारण सिद्ध करता है की कठिन पुरुषार्थ और समर्पण द्वारा प्रारब्ध पर भी विजय पाई जा सकती है l
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रामायण में कहा गया है 
" कर्म प्रधान विश्व करि राखा l
जो जस करहिं सो तस फल चाखा ll "

ईश्वर रचित विश्व कर्म प्रधान है l इस विश्व में कर्मों के अनुभव, कर्मों के प्रभाव, कर्मों की गति और स्वयं कर्म प्रधान माने गए हैं l
जो जैसा करता है, वैसा फल पाता है l पुरुषार्थ या यत्न जीवात्मा से मुक्त आत्मा में जाने का और मुक्त आत्मा बनकर परमात्मा का अनुभव प्राप्त करने का प्रयास है l इस प्रयास में शरीर और मन कहाँ तक काम देते हैं यह एक अलग विचारणीय प्रश्न है l

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Wednesday, June 11, 2014

ॐ श्री साईं नाथाय नमः



Onlineprasad

Sadguru Sai Nath
ॐ श्री साईं नाथाय नमः
साईं बाबा ने ना केवल अपनी सादगी और चमत्कारिक घटनाओसे सबका मन्न जीता है. बल्कि उनकी कही बाते भी शिक्षाप्रद है.
आज के योग में भी हम साईं के दिए सन्देश का पालन करे तोकिसी भी परिस्थिति का सामना करे सकते है. आज साईंवार के दिन आईए बाबा को नमन करते हुए उनके द्वारा कही गयी कुछ अमूल्य बातें पढ़े. 
सद्गुरु साईं नाथ महाराज की जय! इस जयकारे के साथ शिर्डी से उदी पाएं. यहाँ क्लिक करे
साईं कहते है -
  • मेरे रहते डर कैसा?
  • मैं निराकार हूँ और सर्वत्र हूँ.
  • मैं हर एक वस्तु में हूँ और उससे परे भी. मैं सभी रिक्त स्थान को भरता हूँ.
  • आप जो कुछ भी देखते हैं उसका संग्रह हूँ मैं.
  • मैं डगमगाता या हिलता नहीं हूँ.
  • यदि कोई अपना पूरा समय मुझमें लगाता है और मेरी शरण में आता है तो उसे अपने शरीर या आत्मा के लिए कोई भय नहीं होना चाहिए.
  • यदि कोई सिर्फ और सिर्फ मुझको देखता है और मेरी लीलाओं को सुनता है और खुद को सिर्फ मुझमें समर्पित करता है तो वह भगवान तक पंहुच जायेगा. 
बाबा की दी शिक्षा अपने घर लायें, साईं सत्चरित का पाठ करे

सालासर बालाजी भगवान हनुमान के भक्तों के लिए एक धार्मिक स्थल


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AN ARTICLE FROM - WWW.ONLINEPRASAD.COM


|| ओउम हं हनुमंते नमः ||



 
सालासर बालाजी भगवान हनुमान के भक्तों के लिए एक धार्मिक स्थल है| यह राजस्थान के चुरू जिले में स्थित है| साल भर में असंख्य भारतीय भक्त दर्शन के लिए सालासर धाम जाते हैं| सालासर हनुमान धाम राजस्थान के जयपुर-बीकानेर राजमार्ग पर सीकर से लगभग 57 किमी व सुजानगढ से लगभग 24 किमी दूर स्थित है। मान्यता है कि सालासर बालाजी सभी की मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं।

सालासर बालाजी मंदिर इतिहास

श्रावण शुक्ल नवमी, संवत् 1811- शनिवार को एक चमत्कार हुआ| नागपुर जिले में असोटा गांव का एक गिन्थाला-जाट किसान अपने खेत को जोत रहा था| अचानक उसके हल से कोई पथरीली चीज़ टकराई और एक गूंजती हुई आवाज पैदा हुई. उसने उस जगह की मिट्टी को खोदा और उसे मिट्टी में सनी हुई दो मूर्तियां मिलीं| उसकी पत्नी उसके लिए भोजन लेकर वहां पहुंची| किसान ने अपनी पत्नी को मूर्ति दिखाई| उसने अपनी साड़ी (पोशाक) से मूर्ति को साफ़ किया. यह मूर्ति बालाजी भगवान श्री हनुमान की थी| उन्होंने समर्पण के साथ अपने सिर झुकाए और भगवान बालाजी की पूजा की. भगवान बालाजी के प्रकट होने का यह समाचार तुरन्त असोटा गांव में फ़ैल गया| असोटा के ठाकुर ने भी यह खबर सुनी| बालाजी ने उसके सपने में आकर उसे आदेश दिया कि इस मूर्ति को चुरू जिले में सालासर भेज दिया जाये| उसी रात भगवान हनुमान के एक भक्त, सालासर के मोहन दासजी महाराज ने भी अपने सपने में भगवान हनुमान या बालाजी को देखा| भगवान बालाजी ने उसे असोटा की मूर्ति के बारे में बताया| उन्होंने तुरन्त असोटा के ठाकुर के लिए एक सन्देश भेजा| जब ठाकुर को यह पता चला कि असोटा आये बिना ही मोहन दासजी को इस बारे में थोडा बहुत ज्ञान है, तो वे चकित हो गए| निश्चित रूप से, यह सब सर्वशक्तिमान भगवान बालाजी की कृपा से ही हो रहा था. मूर्ति को सालासर भेज दिया गया और इसी जगह को आज सालासर धाम के रूप में जाना जाता है| दूसरी मूर्ति को इस स्थान से 25 किलोमीटर दूर पाबोलाम (भरतगढ़) में स्थापित कर दिया गया| 

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