Saturday, August 30, 2014

राशि अनुसार करें गणेश स्थापना और आराधना


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Polyresin-Shri-Ganesh-Statue
29 अगस्त, शुक्रवार को गणेश चतुर्थी है। भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को भगवान श्रीगणेश का प्राकट्य हुआ था। भगवान श्रीगणेश को प्रथम पूज्य, मंगलमूर्ति, दु:खहर्ता, मंगलकर्ता, गणनायक और न जाने कितने ही नामों से पुकारा जाता है। श्रीगणेश अपने भक्तों की हर मनोकामना पूरी करते हैं।
यदि गणेश चतुर्थी के दिन भगवान श्रीगणेश को प्रसन्न करने के लिए राशि अनुसार उपाय किए जाएं तो भक्त की हर मनोकामना पूरी हो सकती है। आपके मन में भी कोई इच्छा है तो आप भी गणेश चतुर्थी के शुभ अवसर पर अपनी राशि के अनुसार आगे बताए गए उपाय करें। ये उपाय बहुत ही आसान हैं-
मेष राशि
1- मेष राशि वाले लोगों को सिंदूरी रंग के गणेशजी की आराधना करना चाहिए।
2- लगातार 10 दिनों तक ग्यारह दूर्वा हल्दी के जल में डालकर श्रीगणेश को अर्पित करें।
3- ऊं गं गणपतये नम: को दूर्वा से 108 बार भोजपत्र पर लिखें।
4- ऐसी गणेश उपासना से समस्त विघ्न संकट का निवारण होता है और धन-धान्य की प्राप्ति होती है।
वृषभ राशि
1- वृषभ राशि वाले लोगों के लिए दूधिया रंग के श्रीगणेशजी की आराधना करना
उत्तम होता है।
2- प्रतिदिन श्रीगणेश को सफेद फूल पर इत्र लगाकर नौ दूर्वा के साथ अर्पित करें व सफेद लड्डू का भोग लगाएं।
3- पूजा करते समय ऊँ गं ऊँ गं मंत्र का जाप करें।
4- इस प्रकार श्रीगणेश का पूजन करने पर वृषभ राशि वाले लोगों को सभी कार्य में सफलता व सिद्धि प्राप्त हो सकती है।
मिथुन राशि
1- मिथुन राशि वाले लोगों के लिए हरे रंग की गणेश प्रतिमा की पूजा करना शुभ होता है।
2- श्रीगणेश की कृपा प्राप्त करने के लिए प्रतिदिन दूर्वा की माला बनाकर ऊँ श्री गं गणाधिपतये नम: 108 बार उच्चारण करके चढ़ाना चाहिए
3- श्रीगणेश को गुड़ का नैवेद्य अर्पण करना चाहिए।
4- इस प्रकार भगवान श्रीगणेश की पूजा करने से सुख-संपत्ति की प्राप्ति होती है।
कर्क राशि
1- कर्क राशि वाले लोगों के लिए सफेद रंग के गणेशजी की आराधना करना श्रेष्ठ रहता है।
2- श्रीगणेश को प्रसन्न करने के लिए सफेद आंकड़े के पुष्प की माला बनाकर साथ में दूर्वा की जड़ बांधकर अर्पित करें।
3- ऊँ श्री श्वेतार्क देवाय नम: का जाप कम से कम 108 बार प्रतिदिन करें।
4- भगवान श्रीगणेश को मोदक का भोग लगाएं साथ ही मक्खन भी। इस प्रकार भगवान गणेश की पूजा करने से समस्त मनोकामना पूर्ण होती है।
सिंह राशि
1- सिंह राशि वाले लोगों के लिए मेहरून रंग की श्रीगणेश प्रतिमा की आराधना करना ज्यादा सफलता कारक माना गया है।
2- सिंह राशि के लोग भगवान श्रीगणेश की विधि-विधान से पूजा करें।
3- पहले 108 दूर्वा पर थोड़ा कुंकुम लगा लें, उसके बाद यह दूर्वा श्रीगणेश को अर्पित करें।
4- गुड़ की ग्यारह गोली बनाकर रोज भगवान श्रीगणेश को अर्पण करें, इससे आपकी हर मनोकामना पूरी होगी।
कन्या राशि
1- कन्या राशि वाले लोगों को गहरे हरे रंग के गणेशजी की आराधना करना श्रेष्ठ रहता है।
2- 10 दिन तक रोज भगवान श्रीगणेश को साबूत हरे मूंग 108 की संख्या में चढ़ाएं।
3- भगवान गणेश के मंदिर में हरे मूंग व गुड़ का दान करें।
4- श्री वक्रतुण्डाय नम: मंत्र का 108 बार जाप करें। इस तरह श्रीगणेश का पूजन करने से आपको सभी कार्यों में सफलता प्राप्त होगी।
तुला राशि
1- तुला राशि वाले लोगों को सफेद मिश्रित रंग के गणेशजी की प्रतिमा का पूजन करना सर्वोत्तम होता है।
2- तुला राशि के लोगों को तराजू में तौलकर सवाया लड्डू का भोग श्रीगणेश को लगाना चाहिए।
3- दूर्वा व पुष्प भी सवा सौ ग्राम या सवा किलो चढाएं, जिससे समस्त संकट का निवारण होकर इच्छित मनोकामना परिपूर्ण होती है।
4- श्रीगणेश स्त्रोत का पाठ करना भी श्रेष्ठ होता है।
वृश्चिक राशि
1- वृश्चिक राशि वाले लोगों के लिए लाल मिश्रित श्रीगणेशजी की आराधना करना सबसे अच्छा होता है।
2- श्रीगणेश को लाल रंग से रंगे चावल अर्पण करें।
3- इस बात का विशेष ध्यान रखें कि चावलों की संख्या 108 से कम अथवा ज्यादा न हो।
4- श्री विघ्नहरण संकट हरणाय नम: का जाप करें, जिससे समस्त मनोकामना परिपूर्ण हो सके।
धनु राशि
1- धनु राशि वाले लोगों को पीले रंग की गणेशजी की आराधना करना चाहिए।
2- हल्दी की पांच गठान श्री गणाधिपतये नम: का उच्चारण कर चढ़ाना चाहिए।
3- 108 दूर्वा पर गीली हल्दी लगाकर श्री गजवकत्रम नमो नम: का जाप करके चढ़ाएं।
4- श्रीगणेश को नित्य लड्डुओं का भोग लगाएं। इस प्रकार पूजन करने पर भगवान श्रीगणेश सभी कामनाएं पूरी करते हैं।
मकर राशि
1- मकर राशि वाले लोगों के लिए नीले रंग के श्रीगणेश की आराधना करना सर्वोत्तम होता है।
2- भगवान श्रीगणेश को काले तिल अर्पण करें।
3- दूर्वा व लाल रंग के फूल पर इत्र लगाकर श्री गणेशाय नम: का जप करके श्री गणेशजी को अर्पण करें। इससे समस्त विघ्न का निवारण होता है।
​4- गणपति अर्थवशीर्ष का पाठ करें।
कुंभ राशि
1- कुंभ राशि वाले लोगों को आसमानी रंग की गणेश प्रतिमा की आराधना करनी चाहिए।
2- श्रीगणेश पर सिंदूर का तिलक रोज लगाएं व उनके मस्तक के मध्य में हल्दी का तिलक लगाएं।
3- रोज हाथी को मोदक या गुड़-रोटी खिलाएं व भगवान श्रीगणेश को 108 दूर्वा चढ़ाएं, जिससे समस्त रुके हुए कार्य में सफलता अच्छी प्राप्त हो सके।
4- प्रतिदिन ऊँ गं गणपतयै नम: का जाप करें।
मीन राशि
1- मीन राशि वाले लोगों को हल्दी रंग के श्री गणेशजी की आराधना करनी चाहिए।
2- हल्दी की जड़ पर आठ बार ऊं गं गं गं गं गं श्री गजाय नम: लिखकर भगवान श्री गणेशजी को अर्पण करें।
3 – पीले रंग के धागे में पीले पुष्प व दूर्वा की माला बनाकर श्री गणेशजी को अर्पण करें।
4- चने की दाल और गुड़ भगवान श्रीगणेश के मंदिर में दान करें।

Thursday, August 28, 2014

गणेशोत्सव: 10 दिन तक करें यह गणपति प्रयोग


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वक्रतुण्ड महाकाय सुर्यकोटि समप्रभ

निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा|


shri ganesha
सामग्री- श्री गणेश यंत्र, मूंगे की माला, लाल आसन, घी का दीपक (यं‍त्र की अनुपलब्धता में पार्थिव गणेश या गणेशजी का चि‍त्र भी प्रयोग कर सकते हैं)।
प्रथम- ‘ॐ गुं गुरुभ्योनम:’ की 4 माला जाप करें। पश्चात श्री गणेशजी का षोडषोपचार या पंचोपचार पूजन करें। स्मरण रहे- लाल वस्त्र पर चावल की ढेरी लगाकर गणेशजी को स्थापित करें। यंत्र इत्यादि न उपलब्ध हो तो सुपारी पर कलावा लपेटकर गणेशजी का ध्यान करें। पश्चात्
(1) साधारण मंत्र- ‘ॐ गं गणपतये नम:’ के 21-51 माला जप करें।
(2) ‘ॐ वक्रतुण्डाय हुं’
(3) जिन व्यक्तियों या परिवार पर ऋण का बोझ बढ़ता जा रहा हो, वे उपरोक्त गणपति मंत्र की जगह निम्न मंत्र को जपें।
‘ॐ गणेश ऋणं छिन्धि छिन्धि वरेण्यं हुं नम: फट्।’
(4) मंत्र जप करने में उच्चारण का ध्यान रखना आवश्यक है अन्यथा परिणाम ठीक नहीं मिलेंगे। इसके लिए निम्नलिखित प्रार्थना अवश्य करें।
गाइये गणपति जगवन्दन, शंकर-सुवन भवानी नंदन।
सिद्धि-सदन गजवदन, विनायक, कृपासिंधु सुंदर सब लायक।
मोदक प्रिय, मुद मंगल दाता, विद्या वारिधि बुद्धि-विधाता।
मांगत तुलसीदास कर जोरे, बसहिं रामसिय मानस मोरे।
इसके पश्चात नित्य एक माला जप करें।
प्रात: उठकर श्री गणेश का ध्यान कर प्रणाम करें। किसी भी शुभ कार्य के प्रारंभ में गणेश स्मरण आवश्यक है।
ध्यान योग्य निम्न बातें-
अपने घर, दुकान, फैक्टरी आदि के मुख्य दरवाजे के ऊपर तथा ठीक उसकी पीठ पर अंदर की तरफ गणेश प्रतिमा या चि‍‍त्र लगाना न भूलें। यदि न लगाई हो तो गणेश चतुर्थी के दिन जरूर लगाएं।
मुख्य दरवाजे के सामने कभी भी जूते-चप्पल आदि उतारें, बाईं तरफ उतारें।
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Wednesday, August 20, 2014

भारतीय संस्कृति में स्वस्तिक का महत्व

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भारतीय संस्कृत विभिन्न मान्यताओं, परम्पराओं, विश्वासों और सामाजिक और धार्मिक रीति-रिवाजों से परिपूर्ण है। इसके सामान कोई अन्य मिसाल सम्पूर्ण विश्व में मिलना मुश्किल है। इसी संस्कृति का एक अभिन्न अंग है स्वास्तिक चिह्न। भारतीय संस्कृति में स्वास्तिक शब्द और इसके मूर्त रूप स्वास्तिक चिह्न का व्यापक प्रयोग होता है। इस शब्द की अभिव्यक्ति को सुखदोई, कल्याणकारी और मंगलमय आदि शुभ भावों को लेकर आशीष देने के प्रयोग में लाया जाता है। यह शब्द अतीत काल से ही विश्व की मंगल कामना का सूचक बना हुआ है। ऋग्वेद सबसे प्राचीन साहित्य है। इसमें स्वास्तिक शब्द कई स्थानों पर मिलता है। वैसे तो वैदिक ऋचाएं विश्व कल्याण के भावों को ही व्यक्त करती हैं क्योंकि कोई भी स्तुतिकर्ता स्वयं के लिए कोई इच्छा प्रकट नहीं करता है। सभी जगह बहुवचन का प्रयोग कर सृष्टि की समस्त मानव जाती की भलाई के लिए स्तुतियाँ की गई हैं। ऋग्वेद का निम्नलिखित श्लोक समाज कल्याण के भाव को प्रदर्शित करने में पूर्ण रूप से समर्थ है :-

'स्वस्ति नः पथ्यामु धन्वसु स्वस्तयसु वृजेन स्ववर्ति।  
 स्वस्ति नः पुत्र कृशेष योनिशु स्वस्ति रामे मरुतो द्वातन।।'

इस श्लोक में मार्ग मरूभूमि युद्ध आदि में सभी मनुष्यों के कल्याण की शुभकामना की गई है। यहाँ तक कि धन उपलब्धि में सफलता और गर्भस्थ शिशुओं तक की मंगलमय स्थिति के लिए भी प्रार्थना की गयी है। इसी तरह यजुर्वेद में भी स्वस्तिक की व्यापक भावना मिलती है : -

'स्वस्ति नः इन्द्रों वृद्ध श्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्व वेदा।
स्वस्ति नः स्ताक्ष्यों अरिष्ट नेमी स्वस्तिने वृहस्पतिर्दधातु।।'

इस ऋचा को सभी शुभ अवसरों पर कार्य के आरम्भ में ही उच्चारित किया जाता है, ताकि विश्व की मंगलमय भावनाओं के साथ कार्य संपन्न हो जाए। हिन्दू धर्मानुयायिओं के लिए 'स्वस्तिक' या 'सतीए' का चिह्न अज्ञात अथवा नया नहीं है। श्री गणपति का चिह्न होने से यह मंगल सूचक माना जाता है। लग्नादिक शुभ कार्यों में गणपति का पूजन होता है। फिर कहीं कार्यारंभ होता है। कर्मकांडी ब्राह्मण या आचार्य एक पट्टे पर रोली से स्वास्तिक का चिन्ह बनाकर उसको गणपति का चिह्न मान कर उसका पूजन करते हैं। यघपि यह चिह्न हिन्दू मात्र का जाना माना है फिर भी इसका गूढ रहस्य बहुत कम लोग जानते हैं। योग दर्शन में हठयोग की क्रिया का ज्ञान रखने वाले जानते हैं कि मानव देह में योगमार्ग में 6 स्थान हैं, जिन्हें पटचक्र भी कहते हैं। पहला स्थान मूलाधार चक्र या आधार चक्र का है। इस एक चक्र में एक-एक कमल और एक-एक अधिष्ठात देवता का स्थान है। आधार चक्र में चतुर्दल कमल है और ये चक्र स्वस्तिकाकार है, जिसके अधिष्ठात देवता श्री गणपति है। गणपति जिनके स्थान तक पहुंचे बिना योगी आगे गति नहीं कर सकते, एक मंगल कारक देवता है। अतः प्रत्येक कार्य में प्रथम श्री गणपति पूजे जाते हैं। इसलिए उनके चिन्ह स्वास्तिक को मंगल सूचक माना जाता है।

बंगाल तथा मद्रास में आज भी स्वस्तिक के चिह्न अनेक रूपों में सजावट के मौके पर व्यवहृत होते है। इन दोनों प्रांतों में कल्पना (स्वस्तिक का एक रूप) का चिह्न तो बहुत ही प्रचलित है। गुजरात के घरों में दीवारों की वन्दनवारों को इस चिह्न द्वारा मोतियों से अलंकृत किया जाता है। हिन्दू घरों में प्रत्येक उत्सव पर यह चिह्न द्वारा की चौखट पर या आँगन में बनाया जाता है। हिन्दुओं के विवाहोत्सव में ये चिह्न उस दीवार पर अंकित किये जाते हैं जिस पर कुल देव चित्रित रहते हैं। प्रत्येक शुभ अवसरों पर पुरोहित स्वास्तिक के चिह्न कुमकुम द्वारा अंकित करते हैं। विवाह के मौके पर वर-वधु के मुकुट पर स्वास्तिक चिह्न अंकित किया जाता है जो शुभ माना जाता है। हिन्दू दुकानदार अपने हिसाब-किताब के बहीखाते दीपावली के दिन बदलते हैं। बहीखाते की क्रिया उत्सव के साथ संपन्न होती है। बहीखाते के प्रथम पृष्ट पर स्वास्तिक का चिह्न कुमकुम से अंकित किया जाता है। इस चिह्न से यही अर्थ निकाला जाता है कि सिद्धिदाता भगवान श्री गणेश जी उन्हें आशीर्वाद दें और अपनी कृपा दृष्टि की नजर डालते हुए, ऐसे हालात उत्पन्न करें जिससे उनके व्यापार में उन्नति हो। इसके अलावा स्त्रियों के आभूषणों एवं गहनों में भी इस चिह्न की प्रधानता काफी पाई जाती है। गले की चेन के लाँकेट पर, अंगूठी में, चाबी के छल्ले  पर, कानों के बुन्दों में, चूड़ियों पर और यहाँ तक कि स्त्री, पुरूष के एवं बच्चों के वस्त्रों पर व अन्य कई रूपों में यह चिह्न अलंकारों की शोभा में वृद्धि करता है। मंदिर में पुजारी की धोती पर भी यह चिह्न देखा जा सकता है।

स्वास्तिक के चिह्न बौद्ध और जैन धर्मानुयायियों के यहाँ भी सहज रूप में देख जा सकते हैं। बौद्ध लामा पवित्रता तथा भगवान गौतम बुद्ध का आशीर्वाद पाने के अभिप्राय से स्वास्तिक चिह्न व्यवहार में लाते थे। दार्जिलिंग की वेधशाला पहाडी के ऊपर स्थानीय लामाओं के देवता महाकाल की बलिवेदी पर स्वास्तिक के दो विशाल चिह्न अंकित हैं। बौद्ध तथा जैन अनुयायी अपने त्योहारों पर इस चिह्न का प्रयोग करते हैं।

स्वस्तिक चिह्न का व्यवहार अनेक अभिप्रायों से किया जाता है। जन साधारण की धारणा है की यह एक चिह्न है और सूर्य की चाल को चित्रित करता है। ऐसा माना जाता है की यह चिह्न पहले-पहल सूर्य पूजा का चिह्न था। भारतीय लोगों का विचार है की यह चिह्न 'ॐ' तथा स्वास्ति(कल्याण) से सम्बन्ध रखता है। 


कुछ विद्वानों के अनुसार यह चिह्न प्राचीन वैदिक काल में बनाए जाने वाले अग्नि कुण्ड से निकला है जिसका ढांचा लगभग ऐसा ही होता था। जाति विज्ञान के जर्मन पंडित स्वस्तिक की उत्पत्ति पांच हजार वर्ष पूर्व आर्यों द्वारा बतलाते हैं। कहा जाता है की आर्य लोग अनार्यों से भिन्नता रखने के लिए इस चिन्ह का प्रयोग करते थे। एक विद्वान का मानना है की यह बलिदान सूचक चिन्ह है तथा बलिवेदी के प्रदक्षिणा की और संकेत करता है। आर्यों के प्राचीन गावों में चौराहों पर स्वस्तिक के चिह्न बने रहते थे। ऐसा कहा जाता है की स्वस्तिक के चिह्न आर्यों की सैनिक छावनी के प्रवेश द्वारों पर बने रहते थे। विशवास यह था की ये चिह्न छावनियों की विपत्तियों से रक्षा करते थे। ब्रहम ज्ञानी वेदांती जन स्वास्तिक को पर ब्रहम का ही चिह्न बतलाते हैं। वे कहते हैं कि 'ॐ' का ही विंकृत चिह्न स्वस्तिक हो गया है। चित्र 'क' 'ख' से उनकी इस उक्ति की पुष्टि होती है। इन चित्रों की लकीरों को गिनने से पता चलता है की दोनों ही 8  मात्राओं से बनाए गए हैं।

'स्वस्तिक' श्री महालक्ष्मी जी का भी चिह्न है। शाक्त धर्मानुयायी एवं तांत्रिक भी अपने कार्य सिद्धि अनुष्ठान में स्वस्तिक को प्रथम स्थान देते हैं। ईसाई धर्म का क्रास भी स्वास्तिक का ही सूक्ष्म रूप सिद्ध माना जाता है। अतः इसकी धार्मिक महत्ता है। इसके अलावा यह चिह्न हमारे कुशल एवं निपुण इंजीनियरों एवं मिस्त्रियों के लिए भी नगर-निर्माण का एक ढांचा है। जयपुर नगर स्वास्तिकाकार ढांचे पर ही बना हुआ है। हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों ने भी अपने नगर स्वास्तिकाकार ही बसाए थे। राजा-महाराजाओं के महलों पर पर्याप्य संस्कृत में स्वस्तिक ही कहा जाता है। सामुद्रिक शास्त्रानुसार जिस मनुष्य की देह पर स्वास्तिक का चिह्न हो, वह परम भाग्यशाली माना जाता है। माना जाता है कि ऐसा मनुष्य जहाँ भी जाता है, उसका अनुकूल प्रभाव दूसरों पर पड़ता है जिससे दूसरे लाभान्वित होते हैं। युद्ध शास्त्र के अनुसार स्वस्तिक व्यूह में फंसा हुआ शत्रु कठिनाई से ही निकल सकता है। जैन धर्मावलम्बियों के लिए स्वस्तिक एक परम मांगलिक चिह्न है। यहाँ तक कहा जाता है कि ये चिह्न यदि स्वप्न में दीखे तो मंगल होता है। इसी प्रकार स्वस्तिक शब्द का प्रयोग उत्तरोत्तर अनेक ग्रंथों में वैदिक काल के पश्चात बराबर मिलता है। इस चिह्न की चार भुजाएं केंद्र बिंदु के समकोणों पर आधारित हो कर विश्व की चार दिशाओं की घोतक हैं। भुजाओं का दायीं और को मुड़ना सूर्य पथ का प्रतीक बनाता है। इस प्रकार इस मंगलमय चिह्न में सूर्य, पृथ्वी, दिशाएं और समस्त विश्व मैत्री और कल्याण की भावनाएं केन्द्रित की गयी हैं। यही कारण है कि इस चिह्न को शुभ सूचक मान कर युग-युगांतर से हर मंगलमय वस्तु व मंगलमयी बेला पर कार्यारम्भ में ही प्रयोग लाया जाता है।

भारतीय मुद्रा प्रणाली द्वारा भी स्वस्तिक की भावना को विस्तृत रूप से व्यक्त किया गया है। वैदिक काल में गाय आदन-प्रदान का माध्यम थी। गाय को सर्वाधिक कल्याणमयी समझ कर युग से ले कर अब तक इस देश का सर्वोपरि जीव माना गया है। इसके बाद सिक्कों पर सर्व-सम्पन्नता की अभिव्यक्ति कई मंगलमय चिह्न द्वारा की गयी है। तक्षशिला, मथुरा, उज्जैन, अयोध्या, मालवा आदि गणराज्यों के सिक्कों पर हाथी, गाय और स्वास्तिक चिह्न मुद्रा संचालन में निहित मंगलमयी भावना के प्रत्यक्ष प्रतीत हैं। राजस्थान में पुत्र जन्मोत्सव पर बच्चे की बुआ गोबर व पिसे हुए चावल से द्वार के दोनों ओर स्वास्तिक या सातिर रखती है ताकि श्री गणपति समस्त प्रकार की विध्न-बाधाओं को बच्चे से दूर रखे। यह उत्सव काफी धूमधाम से मनाया जाता है।

भारत की इस कल्याणकारी भावना का प्रसार विश्व के अन्य देशों में भी पाया जाता है। चीन की साम्राज्ञी 'वू' ने स्वास्तिक चिह्न को सूर्य का प्रतीक मानने की राजाज्ञा घोषित कर दी थी। वहां के रेशम व अन्य वस्तुओं पर इस चिह्न  का प्रयोग मिलता है। जापान, मिश्र व यूनान आदि देशों में भी स्वास्तिक की व्यापकता के प्रमाण कम नहीं मिलते। अमरीका के पाषाण युग में भी स्वास्तिक के चिह्न मिलते है। ये चिह्न अमरीका के प्राचीन समाधि स्थलों पर तथा मैक्सिको और पेरूविया के प्राचीन कीर्ति-स्तंभों पर पाए जाते हैं। एशिया में पहले-पहल इस चिह्न का पर्दापण वेविलोनिया की प्राचीन राजधानी 'सूसा' में हुआ था। जापान, चीन तथा तिब्बत में यह प्राचीन काल से अब तक व्यवह्र्त होता आ रहा है। इंगलैंड में लोग इसे फ्लाई फुट कहते हैं जिसका अर्थ चौपाया होता है। स्केंडेनेविया में इसे लोग 'थौर  की हथौड़ी' कहते हैं। यूरोप की एक दंत  कथा के अनुसार 'थौर' सूर्य का पुत्र तथा वर्षा का देवता है। यह मानी हुई तथा प्रमाणिक बात है कि स्वस्तिक चिह्न बहुत प्राचीन है परन्तु विश्व में यह इतना प्रसिद्ध नहीं था। एक शक्तिशाली राष्ट्र का राष्ट्रीय चिह्न होने के कारण इसकी सर्वप्रियता तथा प्रतिष्ठा बहुत बढ़ गयी है। यह चिह्न हिटलर के नाजी दल के बैज का चिह्न बनकर विख्यात (या कुख्यात?) हो गया है। आज भी जर्मनी में हिटलर की जेल (संग्रहालय) में स्वास्तिक चिह्न बना हुआ देखा जा सकता है। नाजियों के झंडे पर यह चिह्न तिरछा अंकित किया जाता था। ऐसा माना जाता है कि तिरछा अंकित करने से ये चिह्न एक ख़ास एवं विशेष ढंग से लाभ पहुंचाता है। भारत में इस चिह्न को अंकित करने की दूसरी ही रीति अथवा परम्परा है। कभी-कभी स्वस्तिक के चतुष्कोणों पर केवल चार बिन्दुओं का निशान भर ही दिया जाता है।

आज के इस अति आधुनिक समय में भी स्वस्तिक शब्द व चिह्न का प्रयोग व्यापक रूप से किया जाता है। पुरानी पीढी के लोग तथा हमारे देहात में बसे परिवार आज भी पत्रों का आरम्भ 'स्वास्तिक' या 'ॐ' से करते हैं। संस्कृत या उससे सम्बन्ध रखने वाले लोग अब भी 'स्वास्ति भवः' से ही आशीष देते हैं। ये सब हमारे समाज में व्याप्त विश्व कल्याण की भावना को दर्शाता है।

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Saturday, August 16, 2014

श्रीकृष्ण पूजा के छोटे से टिप्स: मिलेगा आनंद, सुख और सौभाग्य


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भगवान श्रीकृष्ण की हर लीला किसी इंसान को उसकी गुण और शक्तियों को पहचान उनके जरिए सफलता पाने की प्रेरणा व संदेश देती हैं। शास्त्रों में भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति आनंद, सुख और सौभाग्य देने वाली ही मानी गई है। श्रीकृष्ण द्वारा बताया गया कर्मयोग भी कलह और दु:खों से बचने का सबसे बेहतर और बेजोड़ सूत्र है। 
भगवान विष्णु, श्रीकृष्ण या उनके अवतारों की भक्ति से ही हर कलह दूर करने और सरस, सहज, सौभाग्यशाली और सफल जीवन के लिए पूर्णिमा तिथि का भी खास महत्व है। इसी कड़ी में आज कार्तिक पू्र्णिमा के लिए जानिए सौभाग्य की कामना से 3 आसान श्रीकृष्ण मंत्र स्मरण व पूजा का आसान तरीका - 
- सुबह भगवान श्रीकृष्ण को गंगाजल और पंचामृत स्नान कराएं।
- स्नान के बाद गंध, सुगंधित फूल, अक्षत, पीले वस्त्र चढ़ाएं।
- श्रीकृष्ण को माखन-मिश्री का भोग लगाएं।
- सुगंधित धूप और दीप प्रज्जवलित कर नीचे लिखे कृष्ण मंत्रों का आस्था से  सौभाग्य व कलहनाश की कामना से स्मरण या जप करें –
ॐ नमो भगवते गोविन्दाय
ॐ  नमो भगवते नन्दपुत्राय
ॐ कृष्णाय गोविन्दाय नमो नम:
- मंत्र ध्यान के बाद भगवान कृष्ण या विष्णु की आरती करें। प्रसाद बांटे और ग्रहण करें। पूजा, आरती में हुई गलती के लिए क्षमा प्रार्थना करें।

5240 वर्ष के हो जाएंगे भगवान श्रीकृष्ण -जन्ममाष्टमी - 18-8-14

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krishna-janmashtami
जन-जन के आराध्य भगवान श्रीकृष्ण इस वर्ष जन्ममाष्टमी पर 5240 साल के होने जा रहे हैं। पुराणों में वर्णित युग की आयु और धरती पर भगवान श्रीकृष्ण की मौजूदगी के साक्ष्यों के अनुसार ये गणना पंचागों से की गई है। इस बार विलक्षण संयोग के बीच भगवान श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव मनाया जाएगा।
बताया जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण ने द्वापर के अंत में जन्म लिया। ज्योतिषाचार्य पंडित कामेश्वर नाथ चतुर्वेदी के अनुसार पंचांगों के अनुसार कलियुग के गुजरे अनुमानित 5114 वर्ष और द्वापर के अंत में भगवान श्रीकृष्ण की धरती पर मौजूदगी 125 वर्ष आंकी जाती है। ऐसे में इस बार भगवान श्रीकृष्ण 5239 वर्ष पूर्ण कर 5240 वें वर्ष में प्रवेश करेंगे।
इस बार द्वापर में भगवान श्रीकृष्ण के जन्म के समय जिस तरह की नौ ग्रहों की स्थिति थी वैसे ही इस वर्ष छह ग्रहों का संयोग बन रहा है।
इसमें वर्षा ऋतु भाद्रपद कृष्ण पक्ष, वृष राशि का चंद्रमा, सिंह राशि का सूर्य, सिंह राशि का बुध, कर्क राशि में गुरु, राहु कन्या राशि के साथ केतु मीन राशि में मौजूद रहेगा। इसके अलावा मध्य रात्रि वृषभ लग्न भी रहेगा। जो द्वापर में भगवान श्रीकृष्ण के जन्म समय भी थी।