Thursday, March 27, 2014

कार्तिक महीने का सबसे ज्यादा महत्व है


Collection from -( Writer - स्वर्गपति दास -)  http://hindi.webdunia.com

भगवान कृष्ण के लिए कार्तिक महीने का सबसे ज्यादा महत्व है। उन्होंने इस महीने में सबसे ज्यादा लीलाएं इस धराधाम पर कीं। 

भगवान विष्णु और राधारानी को भी यह महीना सबसे अधिक पसंद है। भगवान विष्णु ने इसमें मस्य अवतार लिया था और राधारानी को यह महीना इसलिए पसंद है क्योंकि इसमें भगवान कृष्ण ने विलक्षण लीलाएं की हैं। तुलसी महारानी के लिए भी यह महीना बेहद महत्व रखता है। तुलसी महारानी का प्राकट्य धराधाम पर कार्तिक की शरद पूर्णिमा के दिन ही हुआ था। 

कार्तिक की शरद पूर्णिमा सबसे अधिक महत्व इसलिए है क्योंकि इस पावन दिवस पर भगवान कृष्ण ने महारास रचाया था। इस दिन वैसे भी चांद की किरणों की शोभा निराली होती है। चांद का यौवन और शीतलता अद्भुत होती है। इस रात्रि वैष्णव भक्त खीर बनाकर उसे चंद्रमा की किरणों से आपुरित करके अगले दिन यह अमृत प्रसाद पाते हैं। 


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कार्तिक पूर्णिमा के दिवस पर स्वयं भगवान श्रीकृष्ण तुलसी महारानी की पूजा निम्नलिखित मंत्र से करते हैं :-

वृंदावनी, वृंदा, विश्वपूजिता, पुष्पसार।
नंदिनी, कृष्णजीवनी, विश्वपावनी, तुलसी। 

इस मंत्र से पूर्णिमा के दिन जो भी श्रद्धालु तुलसी महारानी की पूजा करता है वह जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त होकर गोलोक वृंदावन जाने का अधिकारी बनता है। 

पद्म पुराण के अनुसार कार्तिक महीने में कई कल्पों को एकत्रित करते हुए पाप दामोदर कृष्ण को दीपदान करने से समाप्त हो जाते हैं। पद्म पुराण में कृष्ण और सत्यभामा के बीच संवाद से कार्तिक महीने में दीपदान के अद्भुत फलों का रहस्य खुलता है। पूरे कार्तिक महीने भगवान कृष्ण को (जो कि दामोदार भाव में होने चाहिए) दीया दिखाने से अश्वमेघ यज्ञ के फल से भी अधिक लाभ मिलता है। 



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दामोदर भाव वाले कृष्ण यशोदा के द्वारा ऊखल से बांधे गए थे, लेकिन अपने भक्तों के दीपदान से वे उनको सांसारिक सभी बंधनों से छुटकारा दिला देते हैं। पद्म पुराण के अनुसार कार्तिक में दीपदान करने वाले श्रद्धालु के पितर और अन्य परिजन कभी नरक का मुंह नहीं देखते। पूरे महीने दीपदान करके कोई भी श्रद्धालु अपनी संपत्ति दान देने के बराबर फल प्राप्त कर सकता है। जो श्रद्धालु किसी अन्य व्यक्ति को दीपदान के लिए अगर प्रेरित करता है तो उसे अग्निस्तोम यज्ञ का फल मिलता है। 

गंगा या पुष्कर में स्नान करने के भी कार्तिक में बहुमूल्य लाभ हैं। इस स्थानों में स्नान करने से श्रद्धालुओं को अनगिनत पुण्य की प्राप्ति होती है।

स्कन्द पुराण में ब्रह्मा जी और नारद के बीच कार्तिक मास में दीपदान की महिमा को लेकर खासी चर्चा हुई है। उनके अनुसार ज्येष्ठ-आषाढ़ के जल दान या फिर पूरा अन्न दान के बराबर फल केवल दीपदान से मिल जाता है। इसके अतिरिक्त ब्रह्मा जी ने दीपदान को राजसुय यज्ञ और अश्वमेघ यज्ञ के समान बताया गया है। पूरे साल भर में तपस्या और भक्ति के लिए निर्दिष्ट चार महीनों यानी चातुर्मास के तीन महीनों का फल अकेले कार्तिक मास में भगवान की सेवा करके प्राप्त किया जा सकता है। 

विशेष कर कार्तिक माह के आखिरी पांच दिनों, जो कि भीष्म पंचक कहलाता है उसमें की गई तपस्या का फल पूरे साल की तपस्या के बराबर है। 


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एकादशी व्रत का धार्मिक महत्व

Information collected by - Ashutosh Joshi 

From 
Bhaskar dot com 

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एकादश्यां यथोद्दिष्टा विश्वेदेवाः प्रपूजिताः।
प्रजां पशुं धनं धान्यं प्रयच्छन्ति महीं तथा।।


एकादशी पूजा मंत्र!

 

अश्वक्रान्ते रथक्रान्ते विष्णुक्रान्ते वसुन्धरे।
मृत्तिके हर मे पापं जन्मकोटयां समर्जितम्॥

This MANTRA is taken from 
www.onlineprasad.com 


शास्त्रों के अनुसार हिन्दू वर्ष के बारह माह बताए गए हैं और हर माह में दो एकादशी आती हैं क्योंकि प्रत्येक माह में दो पक्ष बताए गए हैं। एक है कृष्ण पक्ष और दूसरा है शुक्ल पक्ष। दोनों ही पक्षों में एकादशी व्रत का गहरा धार्मिक महत्व है।

मूलत: एकादशी व्रत भगवान श्रीहरि को समर्पित है। जो भक्त यह व्रत रखता है उसे भगवान विष्णु की पूर्ण कृपा प्राप्त होती है। ऐसे लोगों को जीवन के दुख-दर्द नहीं सताते हैं। साथ ही व्यक्ति सदैव निरोगी और स्वस्थ रहता है।

एकादशी व्रत का धार्मिक महत्व है साथ ही यह मानसिक एवं शारीरिक पवित्रता के लिए भी महत्वपूर्ण है। निरोग रहने में यह व्रत श्रेष्ठ उपाय है। यह मन को संयम का भाव सिखाता है। शरीर को नई ऊर्जा प्रदान करता है।

प्रतिदिन चन्द्रमा के घटने और बढऩे का सीधा प्रभाव सभी जीवों और वनस्पतियों पर पड़ता है।  हिन्दू पंचांग तिथियों पर आधारित होता है। इन तिथियों और चन्द्रमा क स्थितियों में गहरा संबंध है।  उसका असर भी शरीर पर वैसा ही पडता है। हर मास में दो एकादशी होती है और इन दोनों तिथियों पर आहार संयम रखा जाए तो यह हमारी पाचन क्रिया को बल प्रदान करता है। शरीर निरोगी बना रहता है।
 नाममासपक्ष
कामदा एकादशीचैत्रशुक्ल
वरूथिनी एकादशीवैशाखकृष्ण
मोहिनी एकादशीवैशाखशुक्ल
अपरा एकादशीज्येष्ठकृष्ण
निर्जला एकादशीज्येष्ठशुक्ल
योगिनी एकादशीआषाढ़कृष्ण
देवशयनी एकादशीआषाढ़शुक्ल
कामिका एकादशीश्रावणकृष्ण
पुत्रदा एकादशीश्रावणशुक्ल
अजा एकादशीभाद्रपदकृष्ण
परिवर्तिनी एकादशीभाद्रपदशुक्ल
इंदिरा एकादशीआश्विनकृष्ण
पापांकुशा एकादशीआश्विनशुक्ल
रमा एकादशीकार्तिककृष्ण
देव प्रबोधिनी एकादशीकार्तिकशुक्ल
उत्पन्ना एकादशीमार्गशीर्षकृष्ण
मोक्षदा एकादशीमार्गशीर्षशुक्ल
सफला एकादशीपौषकृष्ण
पुत्रदा एकादशीपौषशुक्ल
षटतिला एकादशीमाघकृष्ण
जया एकादशीमाघशुक्ल
विजया एकादशीफाल्गुनकृष्ण
आमलकी एकादशीफाल्गुनशुक्ल
पापमोचिनी एकादशीचैत्रकृष्ण
पद्मिनी एकादशीअधिकमासशुक्ल
परमा एकादशीअधिकमासकृष्ण

एकादशी व्रत करने की इच्छा रखने वाले मनुष्य को दशमी के दिन से कुछ अनिवार्य नियमों का पालन करना पड़ेगा। इस दिन मांस, प्याज, मसूर की दाल आदि का निषेध वस्तुओं का सेवन नहीं करना चाहिए। रात्रि को पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए तथा भोग-विलास से दूर रहना चाहिए।
एकादशी के दिन प्रात: लकड़ी का दातुन न करें, नींबू, जामुन या आम के पत्ते लेकर चबा लें और उँगली से कंठ साफ कर लें, वृक्ष से पत्ता तोड़ना भी ‍वर्जित है। अत: स्वयं गिरा हुआ पत्ता लेकर सेवन करें। यदि यह संभव न हो तो पानी से बारह बार कुल्ले कर लें। फिर स्नानादि कर मंदिर में जाकर गीता पाठ करें या पुरोहितजी से गीता पाठ का श्रवण करें। प्रभु के सामने इस प्रकार प्रण करना चाहिए कि 'आज मैं चोर, पाखंडी और दुराचारी मनुष्यों से बात नहीं करूँगा और न ही किसी का दिल दुखाऊँगा। रात्रि को जागरण कर कीर्तन करूँगा।'
'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय' इस द्वादश मंत्र का जाप करें। राम, कृष्ण, नारायण आदि विष्णु के सहस्रनाम को कंठ का भूषण बनाएँ। भगवान विष्णु का स्मरण कर प्रार्थना करें कि- हे त्रिलोकीनाथ! मेरी लाज आपके हाथ है, अत: मुझे इस प्रण को पूरा करने की शक्ति प्रदान करना।

यदि भूलवश किसी निंदक से बात कर भी ली तो भगवान सूर्यनारायण के दर्शन कर धूप-दीप से श्री‍हरि की पूजा कर क्षमा माँग लेना चाहिए। एकादशी के दिन घर में झाड़ू नहीं लगाना चाहिए, क्योंकि चींटी आदि सूक्ष्म जीवों की मृत्यु का भय रहता है। इस दिन बाल नहीं कटवाना चाहिए। न नही अधिक बोलना चाहिए। अधिक बोलने से मुख से न बोलने वाले शब्द भी निकल जाते हैं।
इस दिन यथा‍शक्ति दान करना चाहिए। किंतु स्वयं किसी का दिया हुआ अन्न आदि कदापि ग्रहण न करें। दशमी के साथ मिली हुई एकादशी वृद्ध मानी जाती है। वैष्णवों को योग्य द्वादशी मिली हुई एकादशी का व्रत करना चाहिए। त्रयोदशी आने से पूर्व व्रत का पारण करें।
फलाहारी को गाजर, शलजम, गोभी, पालक, कुलफा का साग इत्यादि का सेवन नहीं करना चाहिए। केला, आम, अंगूर, बादाम, पिस्ता इत्यादि अमृत फलों का सेवन करें। प्रत्येक वस्तु प्रभु को भोग लगाकर तथा तुलसीदल छोड़कर ग्रहण करना चाहिए। द्वादशी के दिन ब्राह्मणों को मिष्ठान्न, दक्षिणा देना चाहिए। क्रोध नहीं करते हुए मधुर वचन बोलना चाहिए।
इस व्रत में स्वाध्याय की सहज वृत्ति अपनाकर ईश आराधना में लगना और दिन-रात केवल ईश चितंन की स्थिति में रहने का यत्न एकादशी का व्रत करना माना जाता है। स्वर्ण दान, भूमि दान, अन्नदान, गौ दान, कन्यादान आदि करने से जो पुण्य प्राप्त होता है एवं ग्रहण के समय स्नान-दान करने से जो पुण्य प्राप्त होता है, कठिन तपस्या, तीर्थयात्रा एवं अश्वमेधादि यज्ञ करने से जो पुण्य प्राप्त होता है, इन सबसे अधिक पुण्य एकादशी व्रत रखने से प्राप्त होता है।

तथ्य

  • सूर्य से चन्द्र का अन्तर जब 121° से 132° तक होता है, तब शुक्ल पक्ष की एकादशी और 301° से 312° तक कृष्ण एकादशी रहती है।
  • एकादशी को ‘ग्यारस या ग्यास’ भी कहते हैं।
  • एकादशी के स्वामी विश्वेदेवा हैं।
  • एकादशी का विशेष नाम ‘नन्दा’ है।
  • एकादशी सोमवार को होने से 'क्रकच योग' तथा 'दग्ध योग' का निर्माण करती है, जो शुभ कार्यों (व्रत उपवास को छोड़कर) में वर्जित है।
  • रविवार तथा मंगलवार को एकादशी मृत्युदा तथा शुक्रवार को सिद्धिदा होती है।
  • एकादशी की दिशा आग्नेय है।
  • चन्द्रमा की इस ग्यारहवीं कला के अमृत का पान उमा देवी करती है।
  • भविष्य पुराण के अनुसार एकादशी को विश्वेदेवा की पूजा करने से धन-धान्य, सन्तति, वाहन, पशु तथा आवास आदि की प्राप्ति होती है।

पद्म पुराण के अनुसार

देवाधिदेव महादेव ने नारद को उपदेश देते हुए कहा- 'एकादशी महान पुण्य देने वाली है। श्रेष्ठ मुनियों को भी इसका अनुष्ठान करना चाहिए।' विशेष नक्षत्रों के योग से यह तिथि जया, विजया, जयन्ती तथा पापनाशिनी नाम से जानी जाती है। शुक्ल पक्ष की एकादशी यदि पुनर्वसु नक्षत्र के सुयोग से हो तो 'जया' कहलाती है। उसी प्रकार शुक्ल पक्ष की ही द्वादशी को श्रवण नक्षत्र हो तो 'विजया' कहलाती है और रोहिणी नक्षत्र होने पर तिथि 'जयन्ती' कहलाती है। पुष्य नक्षत्र का सुयोग होने पर 'पापनाशिनी' तिथि बनती है। एकादशी व्रतों का जहाँ ज्योतिष गणना के अनुसार समय-दिन निर्धारित होता है, वहीं उनका नक्षत्र आगे-पीछे आने वाली अन्य तिथियों के साथ संबध व्रत की महत्ता बढ़ाता है।

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