Thursday, June 12, 2014

परमात्मा ने जो हाथ दिया है वह बहुत हीं अद्भुत है l



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परमात्मा ने जो हाथ दिया है वह बहुत हीं अद्भुत है l 
हाथों की पाँचों उँगलियों को अगर हम दिव्य औषधालय (divine pharmacy) कहें तो अतिश्योक्ति नहीं होगी l 
पृथ्वी , जल , वायु , अग्नि , आकाश इन पाँचों तत्वों के स्विच हमारी उँगलियों में हैं l 
इन्हीं पाँचों तत्वों से पूरी श्रृष्टि बनी हुई है तथा हमारा शरीर भी l
इन पाँचों तत्वों का संतुलन हमारे शरीर में परम आवश्यक है lये पाँचों तत्व अगर शरीर में संतुलित रहें तो फिर शरीर बीमार नहीं होगा l 
अंगूठा अग्नि तत्व है अर्थात मंगल से जुड़ा हुआ , अनामिका पृथ्वी तत्व अर्थात सूर्य का प्रतीक है l
अंगूठा और अनामिका हर समय तेजस्वी विद्युत प्रवाह करते हैं l
पूजा-अर्चना तथा शुभ कार्य में हम अनामिका का हीं प्रयोग करते हैं यथा तिलक लगते समय l
अनामिका (ring finger ) तथा अंगुष्ठ (thumb) के शीर्ष को मिलाने से "पृथ्वी मुद्रा" बनती है (बाकी तीन उँगलियाँ सीधी रखनी हैं)
यह अत्यंत प्रभावशाली मुद्रा है l आंतरिक सूक्ष्म तत्वों में सार्थक प्रवाह लाती है , शरीर में स्फूर्ति , कान्ति एवं तेजस्व बढ़ता है l
यह सौन्दर्यवर्धक मुद्रा है l 45 मिनट इस मुद्रा को करने से जीवन शक्ति (Vital force) का विस्तार होता है l यह मुद्रा आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त करती है l

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" बंगला खूब बना महाराज जिसमें नारायण बोले ।
इस बंगले में नौ दरवाजे, बीच पवन का खंभा ।
आवत-जावत कोइ ना देखा, सबसे बड़ा अचंभा ॥ "

यानि की आत्मा l

ईश्वर का सूक्ष्म रूप है आत्मा l सबकी आत्मा अलग है l
आपके अन्दर जो आत्मा है वो आपके भाई या बहन से अलग है l
उनकी आत्मा अलग जगह से आई है l आपकी अलग जगह से l
हर आदमी के बहुत से जन्म होते हैं और पिछले जन्म में आपने जो कर्म किये वो संस्कार बन कर आपके अगले जन्म तक भी साथ रहते हैं।

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हिंदू धर्म में भगवान श्री गणेश का अद्वितीय महत्व है । पूजा-पाठ हो या विधि-विधान, हर मांगलिक, वैदिक कार्यों को प्रारंभ करते समय सर्वप्रथम भगवान गणपति का सुमरन करते हैं ।
यह बुद्धि के अधिदेवता विघ्ननाशक हैं। गणेश शब्द का अर्थ है गणों का स्वामी। हमारे शरीर में पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्मेन्द्रियां तथा चार अंतःकरण हैं तथा इनके पीछे जो शक्तियां हैं उन्हीं को चौदह देवता कहते हैं ।
देवताओं के मूल प्रेरक यही हैं । शास्त्रों में भी कहा गया है कि गणपति सब देवताओं में अग्रणी हैं । उनके अलग-अलग नाम व अलग-अलग स्वरूप हैं, लेकिन वास्तु में गणेशजी का बहुत महत्व है । गणेशजी अपने आपमें संपूर्ण वास्तु हैं ।
उनके जप का मंत्र ॐ गं गणपतये नम: है ।
 

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आत्मा चार स्तरों में स्वयं के होने का अनुभव करती है -
(1) जाग्रत, (2) स्वप्न, (3) सुषुप्ति और (4) तुरीय अवस्था ।
जन्म एक जाग्रति है और जीवन एक स्वप्न तथा मृत्यु एक गहरी सुषुप्ति अवस्था में चले जाना है, लेकिन जिन लोगों ने जीवन में नियमित 'ध्यान' किया है उन्हें मृत्यु मार नहीं सकती ।
ध्यान की एक विशेष दशा में व्यक्ति 'तुरीय अवस्था' में चला जाता है ।
तुरीय अवस्था को हम समझने की दृष्टि से पूर्ण जागरण की अवस्था कह सकते हैं, लेकिन यह उससे कहीं अधिक बड़ी बात है ।
उक्त चारों स्तरों के उपस्तर भी होते हैं जैसे कोई व्यक्ति जागा हुआ होकर भी सोया-सोया-सा दिखाई देता है ।
आँखें खुली है किंतु कई लोग बेहोशी में जीते रहते हैं ।
जीवन कब गुजर गया उन्हें पता ही नहीं चलता तब जन्म और मृत्यु का क्या भान रखेंगे ।
 

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इस संसार का सृजन, पालन और संहार शिव ही करते हैं ।
शिव की महिमा अपार है । पूरा ब्रह्मांड शिव में समाया है ।
भगवान शिव को प्रसन्न करना सब देवों में आसान है ।
यह तो सिर्फ जलधारा और पुष्प से भी प्रसन्न हो जाते हैं l
शिव की पूजा भस्म से करना भी श्रेष्ठ माना गया है l
शिव की भक्ति करने वाला मनुष्य जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाता है।
शरीर के बाहरी हिस्से को कितना भी सजा लो, लेकिन यह एक दिन चिता की अग्नि में जलकर भस्म हो जाएगा ।
अर्थी के उठने से पहले ही जीवन के अर्थ को समझ लेने से मोक्ष के द्वार खुल जाते हैं ।
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ईश्वर की कृपा बहुत शक्तिशाली होती है l
ईश्वर की कृपा द्वारा प्रारब्ध से भी पार पाया जा सकता है l
ईश्वर की कृपा भी तभी मिलती है जब सच्चा समर्पण होता है और मनुष्य पुरुषार्थ करता है l पुरुषार्थ तभी संभव है जब व्यक्ति का मन शुद्ध हो l व्यक्ति का मन तब शुद्ध होता है जब वह दया और करुणा से युक्त कार्य करता है l यदि मनुष्य पर ईश्वर का अनुग्रह हो तो प्रकृति के नीयम भी निष्क्रिय हो जाते हैं l हमारे सामने मार्कन्डेय ऋषि का उदहारण है, जिन्होंने अपने पुरुषार्थ और ईश्वर के प्रति सच्ची श्रद्धा और समर्पण से मृत्यु पर विजय पायी थी l प्रारब्धानुसार उनकी आयु अल्प थी, लेकिन जब उनपर परमपिता परमेश्वर का अनुग्रह हुआ तब यमराज की एक ना चली l
यह उदहारण सिद्ध करता है की कठिन पुरुषार्थ और समर्पण द्वारा प्रारब्ध पर भी विजय पाई जा सकती है l
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रामायण में कहा गया है 
" कर्म प्रधान विश्व करि राखा l
जो जस करहिं सो तस फल चाखा ll "

ईश्वर रचित विश्व कर्म प्रधान है l इस विश्व में कर्मों के अनुभव, कर्मों के प्रभाव, कर्मों की गति और स्वयं कर्म प्रधान माने गए हैं l
जो जैसा करता है, वैसा फल पाता है l पुरुषार्थ या यत्न जीवात्मा से मुक्त आत्मा में जाने का और मुक्त आत्मा बनकर परमात्मा का अनुभव प्राप्त करने का प्रयास है l इस प्रयास में शरीर और मन कहाँ तक काम देते हैं यह एक अलग विचारणीय प्रश्न है l

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